(कार्तिक महीने की एकादशी)
फरीदाबाद:21 अक्टूबर, युधिष्ठिर महाराज जी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की एकादशी की महिमा जानने की उत्कंठा व्यक्त करने पर भगवान बोले — कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘ रमा एकादशी ‘ है । राजन ! प्राचीन काल में मुचुकुंद नाम के एक बड़े प्रसिद्ध राजा हुए हैं । देवराज इंद्र के साथ उनकी मित्रता थी । यमराज, वरुणदेव कुबेर तथा श्रीराम-भक्त विभीषण के साथ भी उनकी मित्रता थी । ये राजा बड़े ही सत्यवादी, विष्णु-भक्त तथा भजन-परायण थे । अपने धर्म आचरण के प्रताप से ही निशकंटक राज्य का संचालन करते थे। एक बार राजा मुचुकुंद के यहां एक कन्या पैदा हुई । वहां की श्रेष्ठ नदी, चंद्रभागा के नाम पर कन्या का नाम भी ‘चंद्रभागा’ ही रखा गया । महाराज चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ उसका विवाह हुआ । हे युधिष्ठिर ! एक दिन वह शोभन अपने ससुर मुचुकुंद जी के घर आया। संयोगवश उस दिन पुण्यदायिनी एकादशी थी ।
चंद्रभागा सोचने लगी कि मेरे पति तो कमजोर हैं ,भूख सहन नहीं कर पाएंगे, अब क्या होगा । क्योंकि यहां पर मेरे पिताजी के शासन के नियम कानून भी कठोर हैं , दशमी के दिन नगाड़ा बजाकर ढिंढोरा पिटवा कर एकादशी की सूचना दे दी गई कि एकादशी के दिन किसी को भी अन्न भोजन नहीं खाना है ,सभी को अनिवार्य रूप से एकादशी व्रत करना पड़ेगा ।
ढिंढोरा सुनकर शोभन ने अपनी पत्नी से कहा, प्रिये ! अब हमें क्या करना चाहिए । अब हमें ऐसा कोई उपाय करना चाहिए कि जिससे मेरे प्राणों की रक्षा भी हो जाए और राजा की आज्ञा का पालन भी हो जाए ।
चंद्रभागा ने कहा–पतिदेव ! आज मेरे पिता जी के परिवार में ,पूरे राज्य में मनुष्यों की तो बात ही क्या , हाथी , घोड़े, गौ आदि पशु भी अन्न का भोजन नहीं करेंगे । हे स्वामिन्, ऐसी अवस्था में फिर मनुष्य किस प्रकार भोजन कर सकेंगे । अतः यदि आपको भोजन करना ही है तो आप अपने घर चले जाएं । अब आप स्वयं सोच लीजिए कि आपको क्या करना उचित है ।
शोभन ने कहा—प्रिये ! तुमने तो ठीक ही कहा किंतु स्वयं मेरी इच्छा व्रत करने की है । अब तो भाग्य में जो होगा देखा जाएगा । इस प्रकार निश्चय करके शोभन ने एकादशी का निर्जला उपवास किया । दिन तो किसी प्रकार निकल गया किंतु ज्यों-ज्यों रात्रि आगे बढ़ने लगी, वह भूख-प्यास से बहुत व्याकुल हो गया । व्रत पालन करने वाले वैष्णव जनों ने सारा दिन बड़े प्रसन्न चित्त व उत्साह से खूब कीर्तन-नृत्य करते हुए बिताया । रात्रि आने पर भक्त-जनों में विशेष उत्साह बढ़ गया । हे राजन ! भगवान श्रीहरि की पूजा, कीर्तन करते हुए भक्तजनों ने रात्रि में जागरण किया । किंतु शोभन के लिए यह सब असहनीय हो गया । वह रात्रि तो उसके लिए कालरात्रि बन गई । दूसरे दिन सुबह होते ही उसके प्राण शरीर को छोड़कर निकल गए और उसकी मृत्यु हो गई।
महाराज मुचुकुंद ने अपने दामाद की यह दशा देखकर, इस सब घटना को भगवत्-इच्छा मानकर चंदन की लकड़ी की चिता जलाकर उसकी अंत्येष्टि क्रिया कर दी तथा अपनी कन्या को पति के साथ सती होने से रोक दिया । शोभन के परलोक गमन करने पर चंद्रभागा अपने पिता के घर में ही रहने लगी।
भगवान श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर से कहा– राजन ! इधर रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन मंदराचल के शिखर पर बसे सुंदर देवनगर का स्वामी बन गया । उसको वहां अति उत्तम तथा असंख्य वैदूर्यमणि-जटित, स्वर्ण-स्तंभों से सुशोभित तथा अनेकों प्रकार की स्फटिक- मणियों से निर्मित भवन में निवास तथा पूर्ण स्वस्थ शरीर मिला । उसके सिर पर सफेद छत्र सुशोभित हो गया । उसे चंवर डुलाया जाने लगा । माथे पर स्वर्ण मुकुट, कानों में कुंडल, कंठ में दिव्यहार, भुजाओं में बहुमूल्य बाजूबंद आदि अनेकों दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर वह शोभन राज-सिंहासन पर बैठा तो वह गंधर्वों तथा अप्सराओं के द्वारा सेवित होने लगा । वहां तो वह दूसरा इंद्र ही लगता था ।
एक बार महाराज मुचुकुंद जी के नगर में रहने वाला सोम शर्मा नाम का एक ब्राह्मण तीर्थों की यात्रा करते-करते देवनगर में जा पहुंचा । वहां अचानक महाराज मुचुकुंद के दामाद को देखकर वह उसके नजदीक गया । ब्राह्मण को आया देखकर राजा ने भी अपने आसन से उठकर ब्राह्मण को प्रणाम किया, उसका अभिनंदन किया तथा उसका कुशल-मंगल पूछा । अपने कुशल-मंगल की बात बताने के बाद ब्राह्मण ने राजा मुचुकुंद व चंद्रभागा के बारे में बताना शुरू किया । ब्राह्मण की बात सुनकर शोभन को पूर्व-स्मृति हो आई और उसने राजा मुचुकुंद तथा अपनी पूर्व पत्नी चंद्रभागा एवं नगरवासी सभी का कुशल-क्षेम पूछा । ब्राह्मण ने सभी लोगों का बारी-बारी से कुशल समाचार कह सुनाया। फिर ब्राह्मण ने उस शोभन से पूछा कि आपकी ऐसी स्थिति कैसे हुई ? आप तो अपना शरीर छोड़कर परलोकवासी हो गए थे । किंतु मैं यह क्या देख रहा हूं । आपकी ऐसी सुंदर नगरी ! सचमुच ऐसी सुंदर नगरी तो मैंने कहीं भी नहीं देखी । तब राजा शोभन ने कहा–हे ब्राह्मणदेव ! कार्तिक महीने की ‘ रमा ‘ एकादशी का व्रत पालन करने से व उस व्रत के प्रभाव से मुझे यह अस्थिर नगर का राज्य मिला है । हे विप्र ! आप कृपा करके बताएं कि ऐसा कौन सा उपाय है जिससे कि इस नगर का अधिकार स्थिर हो सके । वैसे मैं आपको बता दूं कि मैंने बिना श्रद्धा के ही ‘ रमा ‘ एकादशी का व्रत किया था । शायद उसी कारण से इस नगर का आधिपत्य क्षणिक है । ब्राह्मण अब मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि आप महाराज मुचुकुंद की पुत्री चंद्रभागा से यह सारी बातें कहें तो वह इस नगर को स्थिर करने का उपाय कर सकती है ।
सारी बातें सुनकर वह ब्राह्मण वापस अपने नगर में गया तथा वहां जाकर उसने महाराज मुचुकुंद की पुत्री चंद्रभागा को सारी बात कह सुनाई । चंद्रभागा उस ब्राह्मण की बातें सुनकर बहुत प्रसन्न भी हुई तथा आश्चर्यचकित भी । चंद्रभागा बड़ी उत्साहित सी होकर ब्राह्मण से बोली– हे विप्र ! आपकी यह सब बातें मुझे स्वप्न की भांति लग रही हैं । तब ब्राह्मण ने कहा–पुत्री ! मंदराचल पर्वत के महावन में जाकर मैं प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देख कर आया हूं । अग्निदेव की तरह चमकता व दमकता हुआ उनका राज्य है और तो और मैं आमने-सामने होकर उनसे बातें भी करके आया हूं । मेरी बातें सुनकर उसे पूर्व का स्मरण हो आया तब उसने आप लोगों के बारे में पूछा, उन्होंने यह भी कहा कि उनका नगर स्थिर नहीं है, जिससे वह नगर स्थिर हो सके ऐसा कोई उपाय आप कीजिए।
चंद्रभागा ने कहा–हे विप्र ! कृपया आप मुझे वहां ले चलिए क्योंकि मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं अपने पति का दर्शन करूं । मैं अपने पुण्यों के प्रभाव से उस नगर को स्थिर कर दूंगी । बस, अब जैसे-तैसे मैं उनसे मिल सकूं वैसा उपाय बतलाएं क्योंकि बिछड़े को मिलाना बड़ा ही पुण्यदायी कार्य है ।
चंद्रभागा की उत्कंठा देखकर सौम शर्मा चंद्रभागा को मंदराचल पर्वत के पास श्रीवामदेव जी के आश्रम में ले गया । वहां उसने वामदेव जी को शोभन व चंद्रभागा की सारी बात कह सुनाईं। सारी घटना सुनने के बाद तपोमूर्ति वामदेव जी ने महाभाग्यवती चंद्रभागा का वेद मंत्रों के द्वारा अभिषेक किया । उन ऋषि के मंत्र के प्रभाव तथा चंद्रभागा के एकादशी व्रत के प्रभाव से चंद्रभागा दिव्य शरीर तथा दिव्यगति प्राप्त करके अति प्रसन्नचित्त होकर अपने पति के पास पहुंच गई । अपनी पतिव्रता पत्नी को देखकर शोभन भी बड़ा प्रसन्न हुआ । वहां पहुंचकर चंद्रभागा ने अपने पति को सादर प्रणाम किया और उनसे कहा– हे पतिदेव ! एक हित की बात कहती हूं सुनिए ! मैं अपने पिताजी के घर में आठ वर्ष की उम्र से ही पूरे विधि-विधान तथा श्रद्धा के साथ एकादशी व्रत का पालन करती आ रही हूं ,उसी पुण्य के प्रताप से यह नगर अब अविचल होकर महाप्रलय तक इसी प्रकार ही समृद्ध रहेगा । इसके पश्चात वह चंद्रभागा उस दिव्य लोक के दिव्य आभूषणों से आभूषित होकर दिव्य सुखों का सेवन करते हुए दिन व्यतीत करने लगी तथा रमा एकादशी व्रत के प्रभाव से मंदराचल पर्वत के शिखर पर स्थित देवनगर का अधिपति होकर शोभन भी अपनी पत्नी के साथ आनंदपूर्वक रहने लगा।
भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं–राजन ! ‘ रमा एकादशी ‘ कामधेनु तथा चिंतामणि के समान सब इच्छाओं को पूरा करने वाली है । हे राजन ! मैंने आपको सर्वोत्तम अनुष्ठान ‘ रमा ‘ एकादशी व्रत के महात्म्य का वर्णन सुनाया । जो मानव इस एकादशी व्रत का पालन करते हैं , वह ब्रह्महत्या तक के महापापों से मुक्त हो जाते हैं । जिस प्रकार गाय सफेद हो या काली दोनों का दूध सफेद ही होता है , उसी प्रकार कृष्णपक्ष या शुक्लपक्ष की, दोनों एकादशी तिथियां जीवो को मुक्ति देने वाली हैं । जो लोग एकादशी के महात्म्य को सुनते हैं या पढ़ते हैं , वे तमाम पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक में जाकर आनंदपूर्वक निवास करते हैं ।
इति कार्तिक कृष्ण-पक्षीय ‘ रमा एकादशी’ महात्म्य समाप्त सनातन धर्म की जय हो – पं सुरेन्द्र शर्मा बबली राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा व सम्मानित टीम ।